Monday, July 7, 2014

क्या हम खलनायकों को नायक से अधिक पसंद करने लगे हैं?


कहते हैं, फिल्में हमें शिक्षा देने में महत्वपूर्ण कार्य करती हैं। फिल्में अष्ट-गुरू संस्थाओं में से एक हैं। हमें सिखाने वाली अष्ट-गुरू संस्थाओं में शामिल हैं –

1. शिक्षक 2. पालक 3. समाचार पत्र 4. साहित्य 5. सिनेमा 6. वक्ता 7. संत, महंत, महात्मा और गुरू 8. ब्राह्मण

इन अष्ट-गुरू संस्थाओं में सभी का अपना महत्व है, लेकिन आज के समय में सिनेमा अर्थात् फिल्में इनमें सबसे महत्वपूर्ण है।

इसका कारण यह है कि शिक्षक आज नीति-आधारित शिक्षा नहीं दे रहे बल्कि वे शासन पसंद शिक्षा दे रहे हैं। पालक आजीविका का उपार्जन करने में इतना व्यस्त हैं कि उनके पास बच्चों को सिखाने का समय ही नहीं है। समाचार पत्र केवल नकारात्मकता का प्रचार करने का कार्य कर रहे हैं। आज के युग में लोग साहित्य से दूर होते जा रहे हैं इसलिए साहित्य भी लोगों का मार्गदर्शन करने में नाकामयाब हो रहा है। वक्ता आज लोक कल्याण हेतू अपनी वाणी का सदुपयोग नहीं करते, बल्कि आज यह गुण वोट मांगने वालों और अभिनेताओं के पास ही सिमट कर रह गया है। संत, महंत, महात्मा और गुरू भी आज अपनी महत्ता या महंती बचाने मात्र के कार्य में रत हैं। लोगों के सबसे करीब सिनेमा है।

यह ठीक है कि सिनेमा अर्थात् फिल्में मनोरंजन का महत्वपूर्ण साधन हैं और अधिकतर फिल्मकार आज सिर्फ मनोरंजन के लिए फिल्में बनाते हैं, परन्तु फिर भी फिल्में एक व्यक्ति की मानसिकता पर बहुत गम्भीर असर डालती हैं। एक व्यक्ति फिल्मों से बहुत कुछ सीखता है।

फिल्मों का समाज पर व्यापक प्रभाव और पकड़ होता है।

क्या आप यह महसूस करते हैं कि जब आप फिल्म देखकर बाहर निकलते हैं तो फिल्म का नायक अथवा कोई और चरित्र आपके दिलो-दिमाग पर पूरी तरह हावी होता है। आप उसी की तरह चलते हैं, उसी की तरह बात करने की कोशिश करते हैं। ऐसा किस कारण होता है? यह आप पर फिल्म का शैक्षणिक प्रभाव है। यह वो है जो आपने फिल्म से सीखा है।

कम आयु वाले दर्शकों पर फिल्म अधिक आयु वाले दर्शकों के मुकाबले अधिक असर डालती है। किशोर वय के बालक-बालिकाओं के कोमल, भावुक और अपरिपक्व मन-मस्तिष्क पर भली-बुरी फिल्मों का जल्दी प्रभाव पड़ता है।

आज फिल्मों में दिखाई जाने वाली हिंसा और अपराध की घटनाओं से सीख लेकर कम आयु के अपराधियों की संख्या दिन-प्रति-दिन बढ़ती जा रही है।

फिल्मों के प्रति यह आकर्षण असल में पर्दे का नहीं, बल्कि फिल्म की कहानी, घटनाओं और उसके प्रस्तुतिकरण का है। पूर्व काल में बहुत लम्बे समय तक लोग मंच पर रामलीला और रासलीला जैसे नाटकों से अपना मनोरंजन और ज्ञान-वर्द्धन करते रहे हैं। आज मनोरंजन का माध्यम नाटक से हट कर सिनेमा हो गया है। इसलिए व्यक्ति की मानसिकता और भावनाओं पर सिनेमा का असर बहुत बढ़ गया है।

इसके अलावा एक और बहुत बड़ा परिवर्तन आया है। पूर्व काल में लोग कहानी के मुख्य पात्र अर्थात नायक को पसंद किया करते थे। नायक उनका आदर्श होता था। लेकिन आज लोग नायक के बजाये खलनायक को पसंद करने लगे हैं।

अभी कुछ समय पूर्व मेरे बच्चे और उनके पड़ौसी दोस्त सभी दशहरे पर घूमने के लिए जाना चाहते थे। मैंने बच्चों से पूछा कि क्या देखने जाना चाहते हो? तो लगभग सभी बच्चों ने एक स्वर में जवाब दिया - रावण।

बच्चों का जवाब सुनकर मैं बहुत हैरान हुआ। मेरे दिमाग में तुरन्त एक विचार आया कि आज हमारे बच्चों का आकर्षण राम में नहीं बल्कि रावण में है। क्योंकि बच्चों के लिए राम आकर्षक नहीं हैं, रावण आकर्षक है। राम में क्या मजा? वो तो सादे से हैं। आकर्षण तो रावण में है। रावण जलता है तो पटाखे छूटते हैं। बच्चों को राम में दिलचस्पी नहीं, बल्कि पटाखों के कारण रावण में है।

बच्चों का छोड़ो, मुझे पता चला कि कुछ लोग रावण के पुतले की अधजली लकड़ियों को घर ले जाते हैं। ऐसा करने वालों की धारणा ये है कि ये अधजली लकड़ी घर से बुराईयों को जलाने का काम करेगी। इस बात में कितना सच है ये तो नहीं पता, पर बड़ों के आकर्षण का केन्द्र भी राम नहीं बल्कि रावण है।

तो बच्चे हों या बड़े; आज लोग राम से अधिक रावण को पसंद कर रहे हैं। अभी कहीं-कहीं यह भी सुनने को मिल रहा है कि कुछ लोग हर साल रावण का पुतला जलाने का विरोध करने लगे हैं। यानि खलनायक नायक से अधिक पसंद किया जाने लगा है।

प्रसिद्ध अखबार दैनिक भास्कर में कुछ दिनों पूर्व प्रसिद्ध फिल्मकार प्रीतिश नंदी का एक लेख प्रकाशित हुआ जो यह बताता है कि आज लोगों को हीरो से अधिक विलेन पसंद आने लगा है।



लेकिन यह कोइ अच्छा संकेत नहीं है।

फिर क्या है समाधान?

ऐसी फिल्में तैयार होनी चाहियें जो शिक्षण की दृष्टि से मानव के चरित्र का निर्माण करने के लिए बनाई जायें।

ऐसा नहीं कि इस तरह के प्रयोग नहीं होते। ना ही ऐसा है कि इस तरह की फिल्में लाभ नहीं देतीं, जैसा कि अधिकतर फिल्मकारों का कहना है।

पूर्व में सोहराब मोदी साहब उच्च आदर्शों को प्रस्तुत करने वाली सफल फिल्मों का निर्माण करते रहे हैं। जैमिनी वालों की फिल्में भी इस लिहाज से बहुत अच्छी हुआ करती थीं। आज भी कुछ फिल्मकार यदा-कदा ऐसा कर रहे हैं। मुन्ना भाई एम बी बी एस, लगे रहो मुन्ना भाई, गुरू, तारे जमीं पर, ३ इडियट्स आदि फिल्मों का उद्देश्य मात्र मनोरंजन नहीं था, बल्कि शिक्षा देना भी था।

लेकिन इसमें सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण भाग है - हम दर्शकों का। हमें सोच-समझ कर केवल अच्छी फिल्मों को ही देखने का चुनाव करना चाहिये। अपने अलावा हमें अपने बच्चों के लिए भी यह निर्णय लेना चाहिये कि वे कौन सी फिल्म देखें और कौन सी नहीं।

लेखक - विपिन कुमार शर्मा ‘सागर’, दिनांक - 23 जून 2014

1 comment:

  1. विपिन जी, आपने कहा की सभी बच्चों ने जबाब दिया की वे रावण देखने जा रहे है. इसका मतलब् बच्चें रावण को पसंद करते है. लेकिन इसका ये मतलब कतई नही है की बच्चें रावण को पसंद करते है इसलिए उन्होंने ऐसा कहा ! हम रावण को जलाते है तो जलते हुए रावण को देखना, फटाखे फूटते हुए देखने मे मज़ा आता है ,बस !
    कोई नायक है की खलनायक इससे लोगो को कोई मतलब नही होता.जो भी अच्छा काम करेगा लोग उसे ही पसंद करेंगे !

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