Saturday, July 12, 2014

बहाने या सफलता - चुनाव आपका




क्या कभी आपने सोचा कि कुछ लोग बहुत अधिक सफल हो जाते हैं और कुछ लोग बहुत अधिक मेहनत करके भी सफलता हासिल नहीं कर पाते, तो इसके पीछे क्या कारण है?
इसके पीछे असली कारण यह है कि सफलता पाने वाले लोग हर मुश्किल को पार करके कार्य करते हैं और असफल रहने वाले लोग बहाने बनाते रहते हैं।
असफल लोग किस तरह के बहाने बनाते हैं? इन बहानों के बारे में पढ़िये इस लेख में।
ध्यान से देखिये - कहीं आप भी इस तरह के बहाने बनाकर अपनी सफलता से दूर तो नहीं होते जा रहे?
अगर आपको लगता है कि आपमें कोई शारीरिक अथवा किसी अन्य तरह की कमी है जो आपको सफलता पाने से रोक रही है तो इस लेख में जानिये उन लोगों के बारे में जिनमें ये कमियां थीं और जिन्होंने इन कमियों के बावजूद सफलता हासिल की और पूरे विश्व में अपना नाम बनाया।

आम बहाने और सफलता
1 - मुझे उचित शिक्षा लेने का अवसर नहीं मिला. उचित शिक्षा का अवसर फोर्ड मोटर्स के मालिक हेनरी फोर्ड को भी नहीं मिला.
2 - बचपन में ही मेरे पिता का देहाँत हो गया था. प्रख्यात संगीतकार ए. आर. रहमान के पिता का भी देहांत बचपन में हो गया था.
3 - मैं अत्यंत गरीब घर से हूँ. पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम भी गरीब घर से थे.
4 - मैं बचपन से ही अस्वस्थ था. ऑस्कर विजेता अभिनेत्री मरली मेटलिन भी बचपन से बहरी व अस्वस्थ थी.
5 - मैंने साइकिल पर घूमकर आधी जिंदगी गुजारी है. निरमा के करसन भाई पटेल ने भी साइकिल पर निरमा बेचकर आधी जिन्दगी गुजारी.
6 - एक दुर्घटना में अपाहिज होने के बाद मेरी हिम्मत चली गयी. प्रख्यात नृत्यांगना सुधा चन्द्रन के पैर नकली हैं.
7 - मुझे बचपन से मंद बुद्धि कहा जाता है. थामस अल्वा एडीसन को भी बचपन से मंदबुद्धि कहा जाता था.
8 - मैं इतनी बार हार चुका अब हिम्मत नहीं. अब्राहम लिंकन 15 बार चुनाव हारने के बाद राष्ट्रपति बने.
9 - मुझे बचपन से परिवार की जिम्मेदारी उठानी पङी. लता मंगेशकर को भी बचपन से परिवार की जिम्मेदारी उठानी पङी थी.
10 - मेरी लंबाई बहुत कम है. सचिन तेंदुलकर की भी लंबाई कम है.
11 - मैं एक छोटी सी नौकरी करता हूँ, इससे क्या होगा. धीरु अंबानी भी छोटी नौकरी करते थे.
12 - मेरी कम्पनी एक बार दिवालिया हो चुकी है, अब मुझ पर कौन भरोसा करेगा. दुनिया की सबसे बङी शीतल पेय निर्माता पेप्सी कोला भी दो बार दिवालिया हो चुकी है.
13 - मेरा दो बार नर्वस ब्रेकडाउन हो चुका है, अब क्या कर पाऊँगा. डिज्नीलैंड बनाने के पहले वाल्ट डिज्नी का तीन बार नर्वस ब्रेकडाउन हुआ था.
14 - मेरी उम्र बहुत ज्यादा है. विश्व प्रसिद्ध केंटुकी फ्राइड चिकन के मालिक ने 60 साल की उम्र में एक रेस्तरां को अपनी पहली रैसिपी बेची थी.
15 - मेरे पास बहुमूल्य आइडिया है पर लोग अस्वीकार कर देते है. जेराक्स फोटो कापी मशीन के आइडिये को भी ढेरों कम्पनियों ने अस्वीकार किया था पर आज परिणाम सामने है.
16 - मेरे पास धन नहीं. इन्फोसिस के पूर्व चेयरमैन नारायणमूर्ति के पास भी धन नहीं था उन्हें अपनी पत्नी के गहने बेचने पड़े.
17 - मुझे ढेरों बीमारियां हैं. वर्जिन एयरलाइंस के प्रमुख भी अनेकों बीमारियो से पीड़ित थे. राष्ट्रपति रुजवेल्ट के दोनो पैर काम नहीं करते थे.
अभी भी, इतना कुछ पढ़ने के बाद भी कुछ लोग कहेंगे कि यह जरुरी नहीं कि जो प्रतिभा इन महानायको में थी, वह हम में भी हो? मैं सहमत हूँ, लेकिन यह भी जरुरी नहीं कि जो प्रतिभा आपके अंदर है वह इन महानायको में भी हो.
सार यह है कि - "आज आप जहाँ भी हैं या कल जहाँ भी होंगे इसके लिए आप किसी और को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते, क्योंकि आप जो हैं, यह आपका ही चुनाव है। आने वाले कल में भी आप जो होंगे, वह आपका ही चुनाव होगा।"
इसलिए आज चुनाव करिये "आपको सफलता और सपने चाहियें या खोखले बहाने .......?"
संकलन व लेखन - विपिन कुमार शर्मा ‘सागर’, दिनांक 12 जौलाई 2014
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Tuesday, July 8, 2014

पाठक जी से सीखा


सम्पादिका की टिप्पणी
सुरेन्द्र मोहन पाठक जी भारत के एक जाने-माने सफल नावल लेखक हैं। आज उनके बहुत से चाहने वाले पाठक हैं। पाठक जी के नावेल्स में एक खास बात होती है, वे अपनी लेखनी के माध्यम से बहुत कुछ ऐसा कह देते हैं जो हमारे लिए बहुत गहरी सीख बन जाता है।
पाठक जी के नावेल्स से संग्रह की गइ कुछ ऐसी ही सीखों को इस पोस्ट के माध्यम से हम आपके साथ शेयर कर रहे हैं। आशा है आपको हमारा ये प्रयास अवश्य पसंद आयेगा। कृपया इस पोस्ट को अपने मित्रों के साथ शेयर करें। अपने सुझावों व विचारों से हमारा मार्गदर्शन अवश्य करें।
अरूणिमा, सम्पादिका

पाठक जी से सीखा

कोई काम नामुमकिन नहीं होता। मुश्किल होता है, ज्यादा मुश्किल होता है लेकिन नामुमकिन नहीं होता।
डबल गेम, पेज 34
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जिंदगी को एक सिग्रेट की तरह एंजाय करो, वरना सुलग तो रही ही है, एक दिन वैसे ही खत्म हो जानी है।
चोरों की बारात
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गुनाह को आंखों के सामने होता देख कर खामोश रहना गुनहगार की मदद करना है।
डबल गेम, बैक कवर
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खतरों से डरने से क्या होता है? जो शख्स खतरों से डरता है, उसके लिए तो जिन्दगी में खतरे ही खतरे हैं।
पूरे चान्द की रात, पृष्ठ 187
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कोई अनुष्ठान, कोई यज्ञ, कोई जप-तप प्रारब्ध को नहीं बदल सकता। फेट इज इनएवीटेबल। नियति अटल है।
पूरे चान्द की रात, पृष्ठ 22
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दुश्मन को निन्यानवें बार फेल होने पर भी सिर्फ एक बार सफल होना है।
पलटवार
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कुत्ते और आदमी में बुनियादी फर्क ये है कि तुम किसी भूखे कुत्ते के लिये दयाभाव दिखाओ और उसे रोटी खिला कर मरने से बचाओ तो वो तुम्हें कभी नहीं काटता।
पूरे चान्द की रात, पृष्ठ 48
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गलती किसी से भी हो सकती है। गलती करना नादानी है। गलती करके उसको सुधारने की कोशिश ना करना ज्यादा बड़ी नादानी है।
सीक्रेट एजेंट, पृष्ठ 279
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जीवित रहना एक महान कर्तव्य है| जीवन जैसा भी हो उसे सहन करना चाहिए|
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सच का गला झूठ उतना नहीं घोंटता जितना कि खामोशी घोंटती है।
डबल गेम, पृष्ठ 112
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कुछ न कहने से भी छिन जाता है एजाजे सुकून! जुल्म सहने से जालिम की मदद होती है।
हार-जीत
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लाख जौहर हों आदमी में, आदमियत नहीं तो कुछ भी नहीं।
कोलाबा कान्सपिरेसी, पृष्ठ 85
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सफलतायें दोस्त बनाती है, विफलतायें उन्हें आजमाती है।
कोलाबा कान्सपिरेसी, पृष्ठ 52

Monday, July 7, 2014

क्या हम खलनायकों को नायक से अधिक पसंद करने लगे हैं?


कहते हैं, फिल्में हमें शिक्षा देने में महत्वपूर्ण कार्य करती हैं। फिल्में अष्ट-गुरू संस्थाओं में से एक हैं। हमें सिखाने वाली अष्ट-गुरू संस्थाओं में शामिल हैं –

1. शिक्षक 2. पालक 3. समाचार पत्र 4. साहित्य 5. सिनेमा 6. वक्ता 7. संत, महंत, महात्मा और गुरू 8. ब्राह्मण

इन अष्ट-गुरू संस्थाओं में सभी का अपना महत्व है, लेकिन आज के समय में सिनेमा अर्थात् फिल्में इनमें सबसे महत्वपूर्ण है।

इसका कारण यह है कि शिक्षक आज नीति-आधारित शिक्षा नहीं दे रहे बल्कि वे शासन पसंद शिक्षा दे रहे हैं। पालक आजीविका का उपार्जन करने में इतना व्यस्त हैं कि उनके पास बच्चों को सिखाने का समय ही नहीं है। समाचार पत्र केवल नकारात्मकता का प्रचार करने का कार्य कर रहे हैं। आज के युग में लोग साहित्य से दूर होते जा रहे हैं इसलिए साहित्य भी लोगों का मार्गदर्शन करने में नाकामयाब हो रहा है। वक्ता आज लोक कल्याण हेतू अपनी वाणी का सदुपयोग नहीं करते, बल्कि आज यह गुण वोट मांगने वालों और अभिनेताओं के पास ही सिमट कर रह गया है। संत, महंत, महात्मा और गुरू भी आज अपनी महत्ता या महंती बचाने मात्र के कार्य में रत हैं। लोगों के सबसे करीब सिनेमा है।

यह ठीक है कि सिनेमा अर्थात् फिल्में मनोरंजन का महत्वपूर्ण साधन हैं और अधिकतर फिल्मकार आज सिर्फ मनोरंजन के लिए फिल्में बनाते हैं, परन्तु फिर भी फिल्में एक व्यक्ति की मानसिकता पर बहुत गम्भीर असर डालती हैं। एक व्यक्ति फिल्मों से बहुत कुछ सीखता है।

फिल्मों का समाज पर व्यापक प्रभाव और पकड़ होता है।

क्या आप यह महसूस करते हैं कि जब आप फिल्म देखकर बाहर निकलते हैं तो फिल्म का नायक अथवा कोई और चरित्र आपके दिलो-दिमाग पर पूरी तरह हावी होता है। आप उसी की तरह चलते हैं, उसी की तरह बात करने की कोशिश करते हैं। ऐसा किस कारण होता है? यह आप पर फिल्म का शैक्षणिक प्रभाव है। यह वो है जो आपने फिल्म से सीखा है।

कम आयु वाले दर्शकों पर फिल्म अधिक आयु वाले दर्शकों के मुकाबले अधिक असर डालती है। किशोर वय के बालक-बालिकाओं के कोमल, भावुक और अपरिपक्व मन-मस्तिष्क पर भली-बुरी फिल्मों का जल्दी प्रभाव पड़ता है।

आज फिल्मों में दिखाई जाने वाली हिंसा और अपराध की घटनाओं से सीख लेकर कम आयु के अपराधियों की संख्या दिन-प्रति-दिन बढ़ती जा रही है।

फिल्मों के प्रति यह आकर्षण असल में पर्दे का नहीं, बल्कि फिल्म की कहानी, घटनाओं और उसके प्रस्तुतिकरण का है। पूर्व काल में बहुत लम्बे समय तक लोग मंच पर रामलीला और रासलीला जैसे नाटकों से अपना मनोरंजन और ज्ञान-वर्द्धन करते रहे हैं। आज मनोरंजन का माध्यम नाटक से हट कर सिनेमा हो गया है। इसलिए व्यक्ति की मानसिकता और भावनाओं पर सिनेमा का असर बहुत बढ़ गया है।

इसके अलावा एक और बहुत बड़ा परिवर्तन आया है। पूर्व काल में लोग कहानी के मुख्य पात्र अर्थात नायक को पसंद किया करते थे। नायक उनका आदर्श होता था। लेकिन आज लोग नायक के बजाये खलनायक को पसंद करने लगे हैं।

अभी कुछ समय पूर्व मेरे बच्चे और उनके पड़ौसी दोस्त सभी दशहरे पर घूमने के लिए जाना चाहते थे। मैंने बच्चों से पूछा कि क्या देखने जाना चाहते हो? तो लगभग सभी बच्चों ने एक स्वर में जवाब दिया - रावण।

बच्चों का जवाब सुनकर मैं बहुत हैरान हुआ। मेरे दिमाग में तुरन्त एक विचार आया कि आज हमारे बच्चों का आकर्षण राम में नहीं बल्कि रावण में है। क्योंकि बच्चों के लिए राम आकर्षक नहीं हैं, रावण आकर्षक है। राम में क्या मजा? वो तो सादे से हैं। आकर्षण तो रावण में है। रावण जलता है तो पटाखे छूटते हैं। बच्चों को राम में दिलचस्पी नहीं, बल्कि पटाखों के कारण रावण में है।

बच्चों का छोड़ो, मुझे पता चला कि कुछ लोग रावण के पुतले की अधजली लकड़ियों को घर ले जाते हैं। ऐसा करने वालों की धारणा ये है कि ये अधजली लकड़ी घर से बुराईयों को जलाने का काम करेगी। इस बात में कितना सच है ये तो नहीं पता, पर बड़ों के आकर्षण का केन्द्र भी राम नहीं बल्कि रावण है।

तो बच्चे हों या बड़े; आज लोग राम से अधिक रावण को पसंद कर रहे हैं। अभी कहीं-कहीं यह भी सुनने को मिल रहा है कि कुछ लोग हर साल रावण का पुतला जलाने का विरोध करने लगे हैं। यानि खलनायक नायक से अधिक पसंद किया जाने लगा है।

प्रसिद्ध अखबार दैनिक भास्कर में कुछ दिनों पूर्व प्रसिद्ध फिल्मकार प्रीतिश नंदी का एक लेख प्रकाशित हुआ जो यह बताता है कि आज लोगों को हीरो से अधिक विलेन पसंद आने लगा है।



लेकिन यह कोइ अच्छा संकेत नहीं है।

फिर क्या है समाधान?

ऐसी फिल्में तैयार होनी चाहियें जो शिक्षण की दृष्टि से मानव के चरित्र का निर्माण करने के लिए बनाई जायें।

ऐसा नहीं कि इस तरह के प्रयोग नहीं होते। ना ही ऐसा है कि इस तरह की फिल्में लाभ नहीं देतीं, जैसा कि अधिकतर फिल्मकारों का कहना है।

पूर्व में सोहराब मोदी साहब उच्च आदर्शों को प्रस्तुत करने वाली सफल फिल्मों का निर्माण करते रहे हैं। जैमिनी वालों की फिल्में भी इस लिहाज से बहुत अच्छी हुआ करती थीं। आज भी कुछ फिल्मकार यदा-कदा ऐसा कर रहे हैं। मुन्ना भाई एम बी बी एस, लगे रहो मुन्ना भाई, गुरू, तारे जमीं पर, ३ इडियट्स आदि फिल्मों का उद्देश्य मात्र मनोरंजन नहीं था, बल्कि शिक्षा देना भी था।

लेकिन इसमें सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण भाग है - हम दर्शकों का। हमें सोच-समझ कर केवल अच्छी फिल्मों को ही देखने का चुनाव करना चाहिये। अपने अलावा हमें अपने बच्चों के लिए भी यह निर्णय लेना चाहिये कि वे कौन सी फिल्म देखें और कौन सी नहीं।

लेखक - विपिन कुमार शर्मा ‘सागर’, दिनांक - 23 जून 2014

Tuesday, July 1, 2014

पाठक जी से सीखा


a quote by Surender Mohan Pathak

https://www.goodreads.com/quotes/1269649



कुत्ते और आदमी में बुनियादी फर्क ये है कि तुम किसी भूखे कुत्ते के लिये दयाभाव दिखाओ और उसे रोटी खिला कर मरने से बचाओ तो वो तुम्हें कभी नहीं काटता।

भारत के विश्व प्रसिद्ध लेखक - पाठकों के प्यारे - श्री सुरेन्द्र मोहन पाठक जी